भगवान रघुनाथ जी के कुल्लू आगमन का ऐतिहासिक परिदृश्य-Lord Raghunath Kullu
हिमाचल को देवभूमि के नाम से भी पुकारा जाता है। हिमाचल प्रदेश के हर क्षेत्र में किसी न किसी देवी -देवता का वास है और हर क्षेत्र में इन् देवी देवताओं की एक विशेष महिमा है, और सभी पर देवी देवताओ का विशेष आशीर्वाद है। देव भूमि में कुल्लू जिला पर्यटन की दृष्टि से एक विशेष महत्व है। इसी पर्यटन स्थल पर सुल्तानपुर नामक जगह पर भगवान रघुनाथ जी का मंदिर स्थित है। जिसका कुल्लू के इतिहास में एक विशेष महत्व है।
इस मंदिर का इतिहास कुल्लू के राजा जगत सिंह के साथ जुड़ा हुआ है। जिनका कार्यकाल 1637-1662 तक माना गया है। इसी कार्यकाल के बीच 1651 में भगवान रघुनाथ जी के इस भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस से पहले यहाँ के राजा नाथ या शैव सम्प्रदाय को मानने वाले थे, और राजाओं के गुरु भी नाथ ही हुआ करते थे। कुल्लू के 18 करडू देवी देवता भी भगवान रघुनाथ जी के सामने नतमस्तक होते हैं। यह मंदिर लोगों की आस्था का प्रतीक है। कुल्लू का दशहरा अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मेला है और इस अवसर पर भगवान रघुनाथ जी की झांकी विशेष रूप से निकाली जाती है।
इस लेख में हम राजा जगत सिंह जी द्वारा स्थापित इस अद्वितीय मंदिर के इतिहास के बारे में पड़ेंगे।
राजा जगत सिंह द्वारा मणिकर्ण तीर्थ यात्रा
कुल्लू के शक्तिशाली राजा जगत सिंह प्रजा की सुख समृद्धि के लिए समय-समय पर तीर्थ स्थान की यात्रा पर जाते रहते थे। एक बार वह मणिकर्ण तीर्थ यात्रा पर गए। रास्ते में टिपरी गांव (जो कि ब्राह्मण गांव था) पड़ता था। वहां एक विद्वान ब्राह्मण दुर्गा दत्त रहता था। उसकी विद्वता के कारण उसके पड़ोसी उससे ईर्ष्या करने लगे थे।
मणिकर्ण जाते समय पड़ोसियों ने राजा से झूठी बात कह दी, कि दुर्गादत्त के पास एक पाथा (लगभग 2 किलोग्राम) के बराबर मोती हैं, जो उसने आपके महल से चुराए हैं। राजा ने उनकी बात पर विश्वास कर लिया और अपने दो सिपाही दुर्गादत्त के पास भेजे व यह कहने को कहा कि जब मैं मणिकर्ण से वापस आऊंगा, तब तक मोती तैयार रखना। यह बात सुनकर ब्राह्मण हैरान हो गया। उसने सहज भाव से कह दिया कि उन्हें गलतफहमी हुई है। लेकिन वे उस ब्राह्मण की बात मानने के लिए तैयार नही हुए।
ब्राह्मण द्वारा परिवार सहित आत्महत्या करना
ब्राह्मण इस झूठे लांछन से बहुत चिंतित हो गया और राजा के सिपाही दुर्गादुत्त को विभिन्न प्रकार से मानसिक और शारीरिक यातनाएँ देने लगे। उसने इन सब से तंग आकर परिवारसहित आत्महत्या करने का सोचा। एक दिन जब उसे यह मालूम हुआ कि राजा मणिकर्ण तीर्थ यात्रा से वापस आ रहा है। वह टिपरी गांव पहुंच रहा है, तो उसने अपने परिवार को घर में बंद कर दिया और आग लगा दी। स्वयं भी जल गया। जब वह जल रहा था, तब राजा भी पहुंचा।
राजा को देखकर ब्राह्मण दुर्गादत्त ने अपने जल रहे मांस के टुकड़े को राजा की तरफ फेंका और कहा कि ये ले राजा तेरे मोती और साथ में राजा को एक श्राप दिया कि जब भी तू भोजन करने जाएगा, तो तुझे भोजन की जगह कीड़े नसीब होंगे और पानी की जगह खून नसीब होगा। यह कहते-कहते वह स्वर्ग सिधार गया। यह देखकर राजा हैरान हो गया और कई दिनों तक सो नहीं सका। वह जब भी भोजन करने जाता, तो उसे चावलों में कीड़े दिखाई देते और पानी की जगह खून दिखाई देता। जिससे राजा बहुत ज्यादा परेशान हो गया था।
राजा को ब्रह्म हत्या का पाप लगना
दुर्गा दत्त की आत्महत्या करने के बाद राजा को ब्रह्म हत्या का पाप लग गया। जिस वजह से राजा को आत्मग्लानि महसूस हो रही थी। उसका कहीं पर भी मन नही लग रहा था। वह इस सब के लिए खुद को दोषी मान रहा था। कुछ दिनों बाद जब राजा भोजन कर रहा था, तब उसे भोजन में कीड़े नजर आ रहे थे और पानी के बदले खून नजर आ रहा था। जिस वजह से वह भोजन नही कर पा रहा था और न ही पानी पी पा रहा था।
यह सब उस ब्राह्मण द्वारा दिए गये श्राप के कारण हो रहा था। राजा इन सब घटनाओं से बहुत बैचैन हो चुका था। इस से बचने के लिए राजा ने कई उपाय किये, परंतु कोई भी उपाय काम नहीं आया। फिर किसी ने राजा को पौहारी महात्मा के बारे में बताया और राजा उनके पास बिना विलम्ब किये चला गया।
परिहार (पौहारी) महात्मा द्वारा उपाय बताना
राजा के किसी शुभचिंतक ने उसे बताया कि वह झिंडी नामक स्थान पर जाए, जहां गुजरात से परिहार (पौहारी) महात्मा रहते हैं। राजा वहां गए और महात्मा जी को पूरा वृतांत सुनाया। तो महात्मा ने उन्हें बताया कि यह सब उस ब्राह्मण के दिए श्राप के कारण हो रहा है। इसका एक ही उपाय है कि वह राम भक्त बन जाए और अयोध्या में स्थित राम मंदिर से भगवान रघुनाथ जी की मूर्तियां लाकर कुल्लू में स्थापित करें, वह जिन मूर्तियों से अश्वमेध यज्ञ हुआ था। तभी आप इस ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हो सकते हैं।
परिहार (पौहारी) महात्मा के परम भक्त दामोदर दास द्वारा अयोध्या जाना और मूर्तियां लाना
राजा ने परिहार (पौहारी) महात्मा से निवेदन किया कि वह उनकी कोई सहायता करें। राजा के अनुरोध करने पर परिहार (पौहारी) महात्मा ने सुंदरनगर में अपने शिष्य को इस कार्य के लिए नियुक्त किया। उसका नाम दामोदर दास था। वह अपने गुरु की आज्ञा से अयोध्या के लिए रवाना हो गया। दामोदर दास कई दिनों तक कठिन यात्रा करने के पश्चात अयोध्या पहुंचा।
वहां पहुँच कर उसने रसोईये के रूप में कार्य किया और वहां से रघुनाथ जी की मूर्ति लाने का उपाय सोचता रहा। इस तरह एक दिन भगवान रघुनाथ, माता सीता, हनुमान जी की मूर्तियां उठा ली और सरयू किनारे पूजा पाठ करने लगा। लेकिन जब अयोध्या के पुजारी को इस बात का पता चला तो उन्होंने दामोदर दास को पकड़ लिया। दामोदर दास ने पुजारी को सारा वृत्तांत सुनाया।
जब अयोध्या में पुजारी उस मूर्ति को उठाने लगे तो उनसे उठाई नहीं जा रही थी। इस पर अयोध्या के पुजारी ने इसे भगवान रघुनाथ जी की इच्छा कहा और कहा कि कल हमें दोष नहीं देना, तुम अपनी मर्जी से जा रहे हो। फिर रघुनाथ जी की सोने की मूर्ति उठाकर वह कुल्लू ले आया। जिससे राजा और महात्मा बहुत खुश हुए। राजा ने इस मूर्ति को जगत सुख में एक मंदिर का निर्माण करके स्थापित कर दिया। यह घटना सन 1653 की है, और भगवान राम का अनन्य भक्त बन गया। कुछ दिनों के बाद इस उपाय करने के पश्चात राजा ब्रह्म हत्या के इस पाप से मुक्त हो गया।
कुछ दिनों पश्चात मूर्ति का सांवला पड़ जाना
राजा ने एक दिन देखा कि मूर्ति सांवली पड़ रही है इस बात से वह काफी चिंतित हो गया। फिर राजा ने एक रात एक स्वप्न देखा जिसमें वह मूर्ति राजा से कह रही थी कि आपने मुझे अयोध्या से तो ले आया, लेकिन मुझे अपने पुरोहितों की याद आ रही है।
इस स्वप्न के अगले दिन राजा ने अयोध्या से उनके पुरोहितों के एक परिवार को कुल्लू आने का न्योता भेजा और उस परिवार को कुल्लू में ही स्थापित किया। जो कि आज भी कुल्लू में ही रह रहे हैं। उस परिवार की पूरी व्यवस्था करके दी, फिर उस परिवार को कहा कि तुम रोज खिड़की से भगवान रघुनाथ के दर्शन करना। उनका अंदर जाना निषेध कर दिया गया था, क्योंकि राजा को भय था कि कहीं ये इस मूर्ति को वापस अयोध्या ना ले जाए।
दशहरे का आरंभ
जनश्रुति के अनुसार विजयदशमी के दिन यह मूर्ति रघुनाथ जी के मंदिर में स्थापित की गई थी। उस समय कुल्लू जनपद के समस्त देवी देवता वहां बुलाए गए थे और आज इस पर्व को दशहरे के रूप में मनाया जाता है। कल्लू के ढालपुर मैदान, राजा जगत सिंह की रानी के खेत थे जिसका आज भी राजस्व रिकॉर्ड में जिक्र है।
कुल्लू का दशहरा भगवान रघुनाथ जी के सम्मान में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है। यह दशहरा महोत्सव भारत के अन्य हिस्सों के बाद मनाया जाता है। भारत के अधिकांश हिस्सों में राक्षस राजा रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं। लेकिन कुल्लू दशहरा उत्सव उस दिन शुरू होता है, जिस दिन यह उत्सव देश के बाकी हिस्सों में समाप्त होता है।
कुल्लू के दशहरा उत्सव की शुरुआत विजयदशमी के दिन से होती है, जिस दिन भगवान राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। इस अवसर कुल्लू में एक विशाल मेला लगता है। जो लगभग एक महीने तक चलता है और इस मेले के दौरान अंतर्राष्ट्रीय लोक महोत्सव आयोजित किया जाता है। देश के विभिन्न कोनों से व्यापारी आकर इस मेले में घरेलू सामान, ऊनी कपड़ों, लकड़ी के हस्तशिल्प और पारम्परिक आभूषणों सहित स्थानीय वस्तुओं की बिक्री के लिए कई स्टॉल लगाते हैं।
भगवान रघुनाथ साल में सिर्फ चार बार बाहर आते हैं
हिमाचल प्रदेश में सभी देवी देवता विभिन्न अवसरों पर अपने अपने अधिकार क्षेत्र का समय-समय पर भ्रमण करते रहते हैं, और सभी भक्तजनों के दुःख व कष्ट हरते हैं। कहा जाता है कि भगवान रघुनाथ साल में सिर्फ चार बार बाहर निकलते हैं। जिसमें बसंत पंचमी के दिन, व्यास तट पर जलविहार, वन विहार और चौथा दशहरे के पावन अवसर पर बाहर निकलते हैं। इन विशेष अवसरों पर सभी लोग भगवान श्री रघुनाथ जी का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और अपनी सुख समृधि की कामना करते हैं।
राजा भगवान रघुनाथ जी का छड़ीबरदार
परिहार (पौहारी) महात्मा ने कहा था कि रघुनाथ जी की मूर्ति आने के बाद भगवान रघुनाथ कल्लू का राजा होगा। आप छड़ीबरदार होंगे, राजा ने यह बात मान ली और राजा ने संपूर्ण राज पाठ भगवान रघुनाथ जी को सौंप दिया और स्वयं एक मंत्री के रूप में कार्य करने लगे तब से भगवान रघुनाथ जी कल्लू के राजा हैं।
भगवान रघुनाथ जी का यह मंदिर न केवल क्षेत्र के लोगों की आस्था का केंद्र है, बल्कि देश- विदेश से जो लोग यहाँ आते हैं, उनकी भी आस्था का केंद्र है। हर वर्ष लाखों श्रद्धालु भगवान श्री रघुनाथ जी का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। कुल्लू हिमाचल प्रदेश का एक विशिष्ट पर्यटन स्थल है। जहाँ हर साल हजारों लाखों की संख्या में पर्यटक आते हैं। कुल्लू को प्रकृति ने एक विशिष्ट और अनुपम सौन्दर्य से नवाजा है। यह मंदिर कुल्लू जिला मुख्यालय में ही स्थित है। यहाँ तक वायु मार्ग और सड़क मार्ग दोनों द्वारा पहुंचा जा सकता है।