चार ठहरी के देवी-देवता :Gods of four Thehri
हिमाचल प्रदेश का रामपुर बुशहर अपनी समृद्ध संस्कृति के लिए प्रदेश भर में एक अलग स्थान रखता है जिसमे रामपुर बुशहर के साथ लगते शनेरी, डन्सा, लालसा और शिंगला गांवों को परशुराम की ठहराव स्थली या ठहरी कहा जाता है। इन गांवों में देवियों या देवताओं व गांव की स्थापना का मुख्य कारण विष्णु अवतार परशुराम थे
जिन्होंने किसी द्वेष के कारण अपने मामा सहस्रबाहु व रेणुका माता के सिर काट दिए थे। जिसके कारण परशुराम को कोढ़ रोग पैदा हुआ, जिससे बचने के लिए कुलगुरु ने उसे चार धाम से ब्राह्मण लाकर चार ठहरी व पांच स्थानों (निरमण्ड, दत्तनगर, नीरथ, काव व मेमल) में स्थापित किए।
एक किंवदंति के अनुसार जब विंध्याचल पर्वत पर 7वीं शताब्दी पूर्व महाभारत युद्ध के कारण चारों ओर हाहाकार मचा तो भगवान श्री परशुराम जी ने निश्चय किया कि अब यह भूमि तपस्या योग्य नहीं रही और उन्होंने निर्णय किया कि हिमालय में जाकर तपस्या करेंगे और उन्होंने मातृ हत्या के पाप से निपटने के उद्देश्य से चार ठहरी व पांच स्थानों की स्थापना की।
शुक्राचार्य देवता (डन्सा) :Gods of four Thehri
यह गांव परशुराम की शान्ति स्थली मानी जाती है, इस स्थान पर भगवान परशुराम जी को शान्ति का आभास हुआ था। डन्सा सतयुग में डमयापुरी के नाम से विख्यात था। गांव में दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य का प्रसिद्ध पहाड़ी शैली में निर्मित मन्दिर है जिसकी शिखर छत बुशहर के अन्य मन्दिरों की तरह ढलानदार छत की तरह नहीं बल्कि गोल है जो अन्य मंदिरों की छत से बिलकुल भिन्न है।
मन्दिर के निर्माण में पत्थरों व लकड़ी का ही प्रयोग हुआ है। मन्दिर परिसर क्षेत्र काफी विस्तृत है। जिसमें शिवालय व परशुराम जी का मन्दिर भी स्थापित है। मन्दिर से थोड़ी सी ऊंचाई पर मां भद्रकाली या शिकारी देवी का मन्दिर है। ग्रामवासियों की यह मान्यता है कि जब वर्षा नहीं होती हो तो यहां पर भैंसे की बलि चढ़ाने पर देवी प्रसन्न होती है, जिससे वर्षा होती है।
देवता शुक्राचार्य मन्दिर में रथ में विराजते हैं। शुक्राचार्य देवता के साथ ही अष्टधातु की चतुर्भुजाधारी मां गषैणी की शेर पर विराजमान मूर्ति है।डन्सा में मनाये जाने वाले मेलों में ठिरशु, बिरशी, 15 अगस्त, भादों में भदकरथ मेला, भाडी मेला व थाणा पांचे का मेला प्रसिद्ध है।
भाड़ी मेले में शुक्राचार्य देवता रथ में सवार होकर गाजे-बाजे के साथ भाड़ी स्थान पर जाता है. जहां तुड नारायण का मन्दिर भी है। इस स्थान पर आसपास के फुआल एकत्र होकर देवता की पूजा अर्चना करते हैं।
षडेश्वर महादेव देवता ( शनेरी) :Gods of four Thehri
प्राचीन समय में शमयापुरी नाम से विख्यात गांव शनेरी में खड़ेश्वर देवता,क्षेवड़ी व जाहरूनाग देवता का तीन मंजिला पहाड़ी शैली में निर्मित मन्दिर है, जहां पर सबसे ऊपरी मंजिल में देवताओं को रथ से निकालकर एक विस्तृत आकार की लकड़ी की पालकी में बिठाया गया है। पालकी में लगभग 16-17 छोटे-बड़े आकार की मूर्तियां हैं।
मन्दिर 300-400 वर्ष पुराना माना जाता है जिसका जीर्णोद्धार मंदिर कमेटी व् गाँव के लोगों द्वारा किया जा रहा है जो लेख लिखने की तिथि तक अपने अंतिम चरणों में है देवता जाहरुनाग की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि देवता जाहरुनाग की मूर्ति संलग्न गांव कराड़ी(नागा देवरी ) के जमींदार को प्राप्त हुई थी।
जिस स्थान से मूर्ति प्राप्त हुई थी, वहां पर किसी समय तालाब था जो कुछ समय पश्चात् पहाड़ के गिर जाने से भर गया तथा कुछ वर्षों के पश्चात जमींदार को मूर्ति हल चलाते हुए प्राप्त हुई। कराड़ी गांव में मूर्ति प्राप्ति स्थान पर ‘नाग देहुरी’ को पूजा जाता है। देवता जाहरूनाग हर तीन वर्ष के पश्चात् इस ‘नाग देहुरी’ अर्थात् जन्म स्थली पर जाता है।
जिस स्थान पर देवता बिठाया जाता है वहां पर एक चट्टान है जिसमें एक सुराख से कभी-२ नाग निकलते हैं जो देवता के सबसे ऊपर वाले मूहरे को चाटते हैं। जाहरूनाग की वास्तविक तौर पर जन्म स्थली सरपारा है। देवता खडेश्वर शिव अवतार हैं जो पर्वों या मेलों आदि में चार ठहरी से बाहर नहीं जाता।
मन्दिर के अग्रिम भाग में शिवलिंग को शिला निर्मित मन्दिर में देखा जा सकता है। मन्दिर के बाईं ओर देवी मां काली का एक मंजिला मन्दिर है जहां पर शिव. पार्वती व नन्दी की पत्थर की शिल्पीय प्रभाव लिए सुन्दर मूर्तियां हैं। शिवलिंग की ऊंचाई लगभग साढ़े चार फुट होगी। मन्दिर के प्रांगण में धड़विहीन नन्दी जो कभी गोरखों के आक्रमण का शिकार हुआ माना जाता है को भी देखा जा सकता है।
योगेश्वर देवता (शिंगला) Gods of four Thehri
इस मंदिर का निर्माण त्रेता युग में हुआ माना जाता है, योगेश्वर देवता का मन्दिर भी अन्य पहाड़ी शैली में निर्मित मन्दिरों की भांति ही है। देवता का उत्पत्ति स्थान उहरुग्राम माना जाता है। जहां पर एक किसान जो हल चला रहा था को मूर्ति हल चलाते हुए प्राप्त हुई थी, जिसे तत्पश्चात् उस मूर्ति को शिन्गला नामक गाँव में स्थापित कर मन्दिर में रखा गया। देवता को शिव रूप माना जाता है, देवता का एक और मन्दिर उहरु गाँव में भी है।
योगेश्वर देवता के मन्दिर के साथ ही परशुराम जी की शयनगद्दी है जहां पर परशुराम जी ने शयन किया था, शयन के समय ढाई घड़ी सोने के पत्तों के वर्षा हुई थी, ऐसा माना जाता है। उसके पश्चात इसी स्थान पर हनुमान की प्रतिमा स्थापित की गई।
ग्राम बावड़ी के पास ही नृसिंह व परशुराम का मन्दिर आधुनिक शैली में बनाया गया। जनश्रुतियों के अनुसार यह माना जाता है कि परशुराम जी ने जल प्राप्ति के लिए चट्टान पर तीन बाण चलाकर तीन जल धाराओं के रूप में जल प्रकट किया, जिसे आज भी देखा जा सकता है।
गुफा मन्दिर : Gods of four Thehri
किसी समय शिंगला गांव के किसी ब्राह्मण ने इस गुफा में हनुमान जी की सिद्धि की थी। उस समय इस गुफा को ‘शुलरी ओल’ नाम से जाना जाता था। लेकिन सन् 1974 में गढ़खल, तहसील कसौली, जिला सोलन के ‘श्री फ्रेमाच्युत जी’ जो एक महात्मा थे, ने शिंगला में आकर सर्वप्रथम ‘श्रीमदभागवद्’ के यज्ञ का आयोजन किया।
उसके पश्चात ‘श्री प्रेमाच्युत जी’ ने ‘शुलरी ओल’ का आकस्मिक निरीक्षण किया। जब वह तीन-चार बार इस ओल में जाते रहे तो उन्हें दो-तीन चिन्ह ऐसे मिले जिससे उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि कभी इस ओल में ग्राम शिंगला के किसी पूर्वज ने सिद्धि की है।
सन् 1971 में ही दीपावली के शुभ अवसर पर इस ओल में जाकर ध्वजा आरोहण किया। उसके बाद महाराज जी यहीं पर रहने लगे। एक वर्ष के पश्चात् इस ‘शुलरी ओल’ का नाम ‘सवोत्मा गुफा’ रखा गया। गुफा का नाम सवोत्तमा श्री प्रेमाच्युत जी की धर्मपत्नी सवोत्तमा के नाम पर रखा गया, उन्होंने इस गुफा में रात-दिन तपस्या करके अपने साध्वी जीवन का परिचय दिया था ।
जैन मन्दिर : Gods of four Thehri
जैन मन्दिर की स्थापना 1983-84 के लगभग समझी जाती है। मन्दिर की स्थापना का मुख्य कारण इसी गांव के ब्राह्मण परिवार के 12 वर्षीय बालक से जुड़ी एक गाथा से है । बालक के पिता श्री मंगलानन्द व माता श्रीमती बसन्तकली थे जो दोनों ही सात्त्विक स्वभाव के थे। बचपन के समय इनकी माता का देहावसान हो गया था।
अल्पायु में ही बालक माता के स्नेह से वंचित हो गया था। पिता श्री मंगलानन्द बालक की स्नेह से परवरिश करते थे। बालक बचपन से ही तेजस्वी थे। कहा भी गया है कि ‘होनहार विरवान के होत चिकने पात’ अर्थात् जिसको अपने जीवन में कुछ बनना होता है उसके लक्षण पूर्व ही दिख जाते हैं।
12 वर्ष की आयु में ही वे किसी व्यापारी के साथ शिमला होते हुए जीवनोपार्जन हेतु अम्बाला (हरियाणा) पहुंचे। जिस सज्जन के पास वह कार्य करते थे, उसके घर के समक्ष ही एक जैन मन्दिर था जहां पर हमेशा श्रावक (साधु) व श्राविकाएं (साध्वी) सुबह शाम प्रस्थान व आगमन करते थे।
उनके सम्पर्क में आने के कारण वह जैन धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित हुए। तदुपरान्त श्रावकों ने उनकी तेजस्विता को देखकर उनको जैन धर्म की शिक्षा के लिए प्रेरित किया। जैन समाज ने उनके रहन-सहन का सम्पूर्ण प्रबन्ध कर संस्कृत में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने भारत के विभिनन क्षेत्रों में प्रवचन से लोगों को प्रभावित किया जिससे उनकी ख्याति भारत में फैल गई।
जैन श्रावक (साधु) श्राविका (साध्वी) समाज ने बचपन के श्री राधाकृष्ण को ‘श्रमण’ की उपाधि से अलंकृत किया। इन्होंने ही अनेक रचनाओं को लिखा जिनमें से ‘उत्तराध्यन सूत्र’ इनकी मुख्य रचना थी। जिसका स्थान ईसाई धर्म की ‘बाईबल ‘व हिन्दु धर्म की ‘गीता’ के समान है।
इन्हें आज श्रमण श्री फूलचन्द जी महाराज के नाम से जाना जाता है। महाराज श्री फूलचन्द जी ने कभी भी अपनी जन्म स्थली का पता नहीं दिया। लेकिन अपने अनुयायियों के बार-बार निवेदन करने पर ही उन्होंने 55 वर्ष की आयु में अपनी जन्म स्थली शिमला का परिचय दिया।
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