माता श्री देवी सरमासनी पुजारली का इतिहास -Devi Sarmasni Pujarli Nirmand
माता श्री का मंदिर हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के निरमंड खंड के पुजारली नामक स्थान पर स्थित है । माता श्री देवी सरमासनी के इतिहास के बारे में बुजुर्गों ने माता श्री की जो छाडी गाई गई है के अनुसार जिसका ना तो कोई काल के बारे में पता है, और ना ही दिनांक के बारे में , कि माता श्री देवी सरमासनी कौन से काल व दिनांक से पुजारली में है
हल चलाते हुए माता का मोहरा मिलना व् चमत्कार दिखाना
लेकिन माता श्री जी की आरती जिसे पहाड़ी भाषा में छाड़ी कहा गया है, में बताया जाता है कि मातला गांव का एक व्यक्ति बाहण नामक खेत जो मातला के साथ ही है में हल चला रहा था। हल चलाते -चलाते उस व्यक्ति के हल में माता श्री का मोहरा हल के नुकीले सिरे में फंस गया, जिसका प्रमाण आज भी माता श्री के उस मोहरे में लगे हल से नाक में हुआ छेद विद्यमान है, और उस मोहरे को उस व्यक्ति ने अपनी छाबी में रखा और खुद हल चलाता रहा।
माता श्री ने उस व्यक्ति को अपने सत् के अनुसार उसे प्रत्यक्ष बताया कि जैसे ही वह व्यक्ति कुछ समय के बाद उस छाबी के पास गया तो माता श्री का वह मोहरा छाबी से बाहर था। वह व्यक्ति कुछ घबरा गया और उस मोहरे को दोबारा छाबी में रखा और खुद हल चलाने लगा, कुछ समय पश्चात फिर उस व्यक्ति ने छाबी पर नजर डाली, देखा तो मोहरा दोबारा छाबी से बाहर था।
गाँव वालों द्वारा माता के मोहरे की पूजा करने की सलाह देना
यह सब कुछ देखकर वह व्यक्ति आश्चर्य चकित हो गया और उस मोहरे को घर पर ले गया और गांव वासियों को यह सब कहानी बताई, इस पर कुछ बुजुर्गों ने कहा कि इसको स्वच्छ स्थान पर रखकर इसकी पूजा आराधना करनी चाहिए। इस पर इस व्यक्ति ने बुजुर्ग के आदेश अनुसार इसकी पूजा करनी शुरू की।
काफी समय इसी तरह से बीत जाने के बाद एक दिन इस व्यक्ति के घर में बच्चों के सिवाय कोई भी घर पर नहीं थे, बच्चों ने उक्त मोहरे को जहां पर रखा होता था, वहां से निकाला और इसके साथ खेल रहे थे, खेलते खेलते बच्चों को भूख लगी, भूख लगने पर बच्चों ने घर में जो खाना बना था उसे निकाला और कुछ खाया तथा कुछ उस मोहरे को बाहर से लगा रहे थे।
जब यह सब कुछ हो रहा था उसी समय बुजुर्ग घर पर पहुंचे, घर पर पहुंच कर बुजूर्ग ने जब बच्चों को देखा तो बच्चे माता श्री के मोहरे को जूठा खाना खिला रहे थे, इस पर बुजुर्ग ने उन बच्चों को खूब मारा और मारने पर बच्चे रोए व चीखें मारने लगे, बच्चों की चीखों और रोने से माता श्री का हृदय पिघल गया और माता श्री ने उस मकान को हिलाया और वहां से लुप्त हो गई और माता श्री अंबिका निरमंड की शरण में गई जहां इनके भाई चार चम्बू देवता वह 6 बहने पहले ही थी।
माँ अम्बिका द्वारा माता को स्थान देना
इसी तरह से काफी समय यहीं बीत जाने के बाद माता श्री अंबिका ने इन चार चम्बू व 6 बहने वह सातवीं माता श्री देवी सरमासनी को अपने साथ चढ़ाकोट नामक स्थान पर ले गई, जिसका कि इस स्थान का माता श्री के लिए आज भी महत्व है, ले गया और सभी को माता श्री अंबिका ने अलग-अलग दिशा पर अलग-अलग स्थान में भेज दिया यह कि माता श्री देवी सरमासनी को सुन्नैर नामक स्थान पर भेजा गया जहां पूरे गांव में पंडित ही रहते थे।
सुन्नैर गांव में रहते रहते माता श्री का काफी समय निकल गया, लेकिन माता श्री को पंडितों से दान लेना उचित नहीं लग रहा था और दूसरी कोई भी जाति के लोग इस गांव में नहीं रहते थे। इस पर माता श्री ने सुन्नैर गांव से अपने आप को लुप्त किया और पुजारली नामक स्थान पर कराणू नामक फूल के पौधे के नीचे अपने आप को प्रकट किया और गांव वासियों को इस फूल के नीचे कभी शेर व सर्प के रूप में चमत्कार दिखाती रही।
इसी तरह से जब शेर व सर्प गांव वासियों को ज्यादा तंग करता रहा, तो गांव वासियों ने आस पड़ोस के गांव के बुजुर्गों को इकट्ठा किया और इस पर विचार मंथन करने लगे, विचार मंथन करते-करते इस कराणू के फूल के पौधे के नीचे जहां शेर व सर्प निकलते थे, उसी जगह पत्थर की मूर्ति प्रकट हुई और यह मोहरा भी दिखा। जब ये लोग इस मोहरे और मूर्ति को देखकर हैरान हुए तो सभी लोग इसको देखने इकट्ठे हुए और इस मूर्ति व मोहरे को देखने लगे।
माता द्वारा चमत्कार दिखाना व् मंदिर की स्थापना करना
जितने लोग इस मूर्ति व मोहरे को देखने इकट्ठे हुए, उन सब को माता श्री ने एक और चमत्कार दिखाया, कि जहां यह मूर्ति और मोहर था और जितने लोग इस मूर्ति और मोहरे को देखने के लिए इकट्ठे हुए थे, उन सब के चारों ओर चीटियों की लाइन लग गई यानी कि सभी लोगों को बाहर से चीटियों ने घेर लिया।
इस पर सभी लोगों ने सोचना शुरू किया कि यह क्या हो गया, इतने में एक व्यक्ति के मुख से अपने आप यह शब्द निकले कि “हे माँ सरमासनी हम सब लोग मिलकर के जहां-जहां यह चीटियों की लाइन लगी है, इसी लाइन पर तेरे मंदिर की दीवार लगाकर मंदिर बनवाएंगे और तेरी पूजा आराधना करेंगे” इतना बोलने पर चीटियों की लाइन लुप्त हो गई और सभी लोग आश्चर्यचकित हुए और दूसरे दिन से जिन-जिन गांवों के लोग आए थे, सभी ने अपने-अपने गांव वालों को यह बात बताई और मंदिर बनाना शुरू किया।
इसी तरह से यह मंदिर बना और कहा जाता है कि जब यह उक्त प्रदर्शन माताजी ने दिखाया, उस वक्त बाहर गांव के लोग आए थे, इसलिए माता श्री के गडकर आज भी वही बाहरी गांव के लोग हैं और उस प्रदर्शन के समय उक्त व्यक्ति द्वारा उक्त समय में लिया गया नाम ‘देवी सरमासनी’ आज भी विद्यमान है इसी तरह से आज तक उक्त स्थान पर मंदिर बन जाने के बाद मूर्ति व मोहरे की पूजा आराधना के बाद कोई भी शेर व सर्प नहीं निकला।
माता श्री देवी सरमासनी के हर पर्व त्यौहार आज भी प्राचीन संस्कृति के अनुसार चल रहे हैं, यही माता श्री का इतिहास है।
माता श्री देवी सरमासनी पुजारली के त्यौहार व पर्व Devi Sarmasni Pujarli Nirmand
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के के पुजारली गाँव में माँ सरमासनी का मंदिर स्थित है। इस मंदिर और इसके स्थानों पर अलग अलग समय पर विभिन्न त्यौहार और पर्वो का आयोजन किया जाता है, जिनका एक संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है :
माघ संक्रांति
माघ संक्रांति को पुजारी द्वारा पूजा करने के बाद माता श्री के जितने भी मोहरे हैं, को बाजे गाजे के साथ माता श्री के हारयान व मुजारयान मंदिर से माता श्री को कोठी को ले जाते हैं, और माता श्री की मूर्ति के मुख को घी से लेप कर मूर्ति के मुख को पूरी तरह ढक देते हैं, और फागुन संक्रांति यानी कि ठीक एक माह तक माता श्री के इस मूर्ति वाले कमरे को नहीं खोलते हैं।
जिसमें की धूप बत्ती भी बिना दरवाजा खोलकर होती है। इसका विशेष महत्व यह है कि माता श्री एक माह के लिए बाहर जाती है, और माता श्री के मोहरों की पूजा कोठी में ही होती है। यह सब कुछ होने पर मंदिर में भोग पूजा की जाती है।
फागुन संक्रांति
इस दिन मंदिर की साफ सफाई करने के बाद माता श्री की मूर्ति में लगे घी के लेप को पुजारी द्वारा गाजे बाजे के साथ हटाया जाता है, और उसके बाद माता श्री के मोहरों को कोठी से हारयान व मुजारयान द्वारा मंदिर को वापस ले जाया जाता है और उसके बाद पूजा की जाती है। पूजा के बाद माता श्री का माली खेल करता है, और माता श्री के बारे में हारयान व मुजारयान को पिछले माह की गतिविधियों के बारे में बताती है। माली के खेल करने के बाद सभी को मंदिर में सह भोज करवाया जाता है।
चैत्र नवरात्रि पूजन
इस दिन मंदिर में पूजा अर्चना के साथ-साथ कन्या पूजन भी किया जाता है, तथा हारयान व मुजारयान के अलावा ब्राह्मणों को भी सहभोज दिया जाता है। इस दिन माता श्री के सभी पदाधिकारी भी मंदिर में ही खाना खाते हैं। वैसे तो चैत्र नवरात्रों का भारतीय संस्कृति व भारतीय धार्मिक ग्रंथो में एक विशेष महत्व है चैत्र नवरात्रों में कन्या पूजन भारतवर्ष के कोने-कोने में किया जाता है
इस तरह माता श्री के मंदिर में भी इस विशेष अवसर पर कन्याओं का पूजन किया जाता है और माता रानी को प्रसन्न करने की हर संभव कोशिश की जाती है माता श्री के मंदिर में इस दौरान जगराते और भजन कीर्तन संध्याओं का आयोजन किया जाता है जिसमें आस पड़ोस के सभी गांव के लोग माता का गुणगान गाने आते हैं
मेला निरशु पुजारली
यह मेला 19, 20, 21 वैशाख को होता है, इस मेले में माता श्री रथ पीड कर 19 वैशाख को दोपहर बाद मंदिर से अपने हारयान व मुजारयान के साथ निकलती है, और त्वार नामक गांव में रात्रि विश्राम करती है। जहां त्वार गांव के लोग सभी हारयान व मुजारयान को शाम व सुबह का भोजन करवाते हैं। 20 वैशाख की सुबह खाना खाने के बाद माता श्री को त्वार चढ़ाकोट नामक स्थान पर ले जाया जाता है।
यहां पहुंच कर माता श्री इस स्थान के चारों तरफ ढाई चक्कर लगाती है, और पूजा करने के बाद पुराने वाद्य यंत्र छाबे के साथ नाचती है। माता श्री के नाचने के बाद सभी लोग इस स्थान के चारों कोने में बैठकर पुराने रीति रिवाज के अनुसार गीत वह लोहरियां गाते हैं, जिसे पहाड़ी भाषा में दशी कहा जाता है। यह रस्म पूरी होने के बाद सभी लोग नंगे पैर नाटी लगाते हैं। इस नाटी का विशेष महत्व यह है कि इस नाटी में पहले सबसे बुजुर्ग नाचेंगे और इस नाटी के सिर्फ ढाई चक्कर काटे जाते हैं, ना तो इस से कम और ना ही इस से ज्यादा।
यह सब कुछ होने के बाद माता श्री को यहां से उठाकर गांव ठांस, शोह्च होकर के इस दिन मातला गांव में दोपहर तक पहुंचाया जाता है। यहां माता श्री विश्राम करती है और गांव वासियों द्वारा सभी हारयान व मुजारयान को भोजन करवाया जाता है। भोजन करने के बाद माता श्री को यहां से उठाया जाता है, और सायं काल से पहले पहले माता श्री के मंदिर में पहुँचाया जाता है, जहां माता श्री को नचाया जाता है, और नाचने के बाद माता श्री को मंदिर के बाहर पूरी रात बैठाया जाता है।
और पूरी रात को रलू, सुन्नैर गांव के पंडित माता श्री के पर्व को पहले आरती करके, उसके बाद माता श्री के हारयान व मुजारयान को सवांग निकालकर हंसाते हैं। रात खुलने के बाद यह सब कुछ बंद कर दिया जाता है, यानी कि 21 वैशाख को माता श्री की पूजा की जाती है और शाम तक मंदिर में नाटी लगाई जाती है और सभी लोगों को भोजन करवाया जाता है।
मेला मानी का
यह मेला 29 ज्येष्ठ को होता है, और इस मेले में माता श्री रथ पीड कर अपने वाद्य यंत्रों के साथ 29 ज्येष्ठ की सुबह सौर नामक स्थान जो निशानी नामक गांव के साथ है पर जाता है, यहां माता श्री को नचाने के बाद शाम तक लोगों द्वारा नाटी लगाई जाती है। शाम के समय माता श्री को यहां से उठाया जाता है, और वापिस मंदिर में लाया जाता है। माता श्री के वापस मंदिर आने के बाद यह मेला समाप्त हो जाता है।
मेला शाठा खशे जाच
यह मेला आषाढ़ संक्रांति को मनाया जाता है। इस मेले में माता श्री रथ पीड कर अपने हारयान व मुजारयान के साथ दोपहर के बाद खनोटा गांव के एक सौर नामक स्थान पर जाती है, जहां पहले माता श्री नाचती है और इसके बाद माता श्री का माली खेल करता है। खेल करते करते यह माली अपने पैर में छुरा मारता है और अपने गाल में एक तरफ से सुआ डालता है और दूसरी तरफ से बाहर निकलता है।
कई बार तो ये सब कुछ करने से माता श्री के हारयान वह मुजारयान माता श्री के माली को रोक देते हैं, लेकिन कई बार इसे रोक पाना कठिन होता है। सब कुछ होने के बाद माली माता श्री के बारे में बताता है। माली के खेल खत्म होने के बाद माता श्री के रथ को उठाया जाता है और वापसी में बाहण नामक खेत में सात चक्कर लगाती है। जहां इतिहास के अनुसार माता श्री का मोहरा मिला था। यह सब होने के बाद माता श्री अपने मंदिर वापस आती है, जो कि प्राचीन काल से चला आ रहा है। आज के दिन सभी लोग सायंकाल में मंदिर में ही खाना खाते हैं।
शौज नवरात्रि पूजन
इस दिन मंदिर में अखंड पाठ किए जाते हैं, और पाठ के अंत में कन्या का पूजन किया जाता है और विशेष कर ब्राह्मणों को खाना खिलाने से पहले उनके हाथ पैर मंदिर के पदाधिकारी द्वारा धुलाये जाते हैं, और उनकी पूजा की जाती है और साथ में दक्षिणा भी दी जाती है। दक्षिणा देने के बाद इनको खाना खिलाया जाता है और ब्राह्मणों को खाना खिलाने के बाद सभी हारयान वह मुजारयान खाना खाते हैं।
माता के इतिहास को जानने के लिए इस विडियो को जरुर देखें