Budi Diwali Nirmand-बूढी दिवाली मेला निरमंड की पारम्परिक पृष्ठभूमि 

Budi Diwali Nirmand, Kullu Himachal Pradesh

नमस्कार साथियों, सभी को जय श्रीराम। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि हिमाचल में कई क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली का पर्व काफी धूमधाम से मनाया जाता है। लेकिन जो यह बूढ़ी दिवाली है, यह कुछेक स्थानों में काफी प्रसिद्ध त्योहार है। जैसे कि हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के निरमंड गांव की बूढ़ी दिवाली बहुत ही प्रसिद्ध मानी जाती है। इसकी शुरुआत के बारे में अगर दंत कथाओं के अनुसार देखा जाए तो इसे भगवान परशुराम जी के साथ जोड़ा जाता है।

सीता स्वयम्वर में जब उनके गुरु (भगवान शिव) के धनुष को प्रभु श्री रामचन्द्र द्वारा तोड़ा गया, उस समय परशुराम की मुलाकात भगवान श्री राम से हुई थी। भगवान रामचन्द्र जी से तो वह उस वक्त काफी क्रोधित भी हुए थे, कि मेरे गुरु का धनुष किसने तोड़ा है। यदि कोई सिद्ध कर देगा तो मैं समझ लूंगा कि इस संसार में दानवों के संहार के लिए भगवान का अवतरण हो चुका है। उस वक्त भगवान श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी ने उनकी भेंट हुई थी। 

उस पर उन्होंने यह भी कहा था कि यदि आप मेरे इस धनुष पर बाण चढ़ा देंगे तो, मै समझ जाऊँगा कि भगवान का अवतार हो चुका है और प्रभु श्री राम उस धनुष पर बाण चढ़ा कर उस प्रत्यंचा को खींच देते हैं, और कहते हैं  कि यदि मेने एक बार धनुष पर बाण का संधान कर लिया तो, मै उसे चाह कर भी वापिस नहीं ले सकता हूँ। इस पर परशुराम जी ने उनसे निवेदन किया, कि इस बाण को उत्तर दिशा की ओर छोड़ दें। जिस से मेरे अर्जित पुण्यलोक नष्ट हो जायेंगे और मैं उत्तर दिशा में जाकर तपस्या करूंगा और जो मेरे द्वारा पाप कर्म भी हुए हैं, उनका निवारण भी करूंगा। 

भगवान परशुराम का हिमालय में आना 

इस तथ्य को मानते हुए दंत कथा के अनुसार भगवान परशुराम अपने 1500 अनुयायियों के साथ हिमालय की ओर चल पड़े थे, जिसमें कहा जाता है कि उन्होंने हिमाचल में कई स्थानों की स्थापना की है। जिनके साक्ष्य आज भी हमें मिलते रहते हैं जैसे गांव ममेल, नीरथ, दत्तनगर, निरमंड। 

इनमें से निरमंड स्थान काफी बड़ा माना जाता है और उन्होंने चार जगह पर विश्राम भी किया था, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘ठहरी’ कहा जाता है। ये चार ठहरी लालसा, डंसा, शिंगला, शनेरी गाँव थे। जो आज के समय में शिमला जिले के रामपुर बुशेहर क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। जिस स्थान पर भगवन परशुराम से सम्बंधित मंदिर है या उन्होंने किसी स्थान पर विश्राम और तपस्या की है, उस स्थान पर बूढ़ी दिवाली का आयोजन किया जाता है।

परशुराम द्वारा अपने अनुयायियों को विभिन्न स्थानों में बसाना 

हिमालयी क्षेत्र पहले से ही तपस्वियों और संन्यासियों का घर रहा है। जैसे ही भगवान् परशुराम हिमालय की ओर आते हैं तो भगवान परशुराम जी द्वारा प्रथम स्थान पर (कामाख्या) कामाक्षा माता के 300 उपासकों को करसोग के लगते क्षेत्र में बसाया जाता है। उसके बाद ममेल आते हैं ममेल में ममलेश्वर महादेव हैं ममेल महादेव शिव का संपूर्ण परिवार है, जो लगभग पूरे भारतवर्ष में एक ऐसा स्थान होगा, जहां भगवान भोलेनाथ की प्रतिमा माता पार्वती के साथ हैं और पूरा शिव परिवार विद्यमान है। वहां पर शिव के 300 उपासक ठहर जाते हैं। 

उसके बाद जैसे जैसे आगे चलते हैं, तो नीरथ में 200 ब्राह्मण वहीं पर रहते हैं और वहां पर भगवान सूर्य के उपासक बस जाते हैं और 200 ब्राहमण दत्तनगर में दत्तात्रेय महाराज जी के उपासक ठहर जाते हैं, और भगवान की पूजा में लग जाते हैं। उसके पश्चात भगवान परशुराम जी ने चार स्थानों पर विश्राम भी किया था जो कि दंत कथाओं में आता है। लालसा, डंसा, शिंगला, शनेरी तत्पश्चात वह निरमंड की ओर आते हैं। 

इसी निरमंड नामक स्थान पर भगवान परशुराम ने स्वयं माता अंबिका की उपासना की और एकाग्रचित्त होकर वहीं अंतर्ध्यान हो गए थे और वहीं पर भगवान परशुराम जी द्वारा 500 ब्राह्मणों को बसाया गया था। जो कर्मकांड में काफी निपुण थे। जिस कारण से निरमंड को छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। यहां के जो ब्राह्मण हैं वह बहुत ही विद्वान माने जाते थे। वह स्वयं ही पंचांग का निर्माण करते थे। यहां पर कभी भी किसी बाहरी शक्तियों का आधिपत्य नहीं रहा है। यहां हमेशा धार्मिक और माता के उपासकों का बोलबाला रहा है।

परशुराम की तपोस्थली निरमंड 

निरमंड की बूढी दिवाली के बारे में जानने से पहले ये जानना आवश्यक है कि इस स्थान की स्थापना भगवान परशुराम द्वारा की गयी है।  इस स्थान पर उन्होंने  500 ब्राह्मणों को स्थापित किया था और दोहरी शठ ( दो जगह) पर उन्होंने 60-60 लोगों को आश्रय दिया था। भगवान परशुराम जी द्वारा यहां 12 साल तक तपस्या की गयी थी , माता अंबिका की स्थापना की, वे स्वयम उनके उपासक रहे हैं यहां पर उन्होंने स्वयं माता अम्बिका की उपासना की और अंतर्ध्यान  हो गए थे।

निरमंड बूढी दिवाली की दंत कथा 

निरमंड की बूढी दिवाली के बारे में कई प्रकार के कथानक हैं, जिन में से एक कथा का वर्णन सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद में मिलता है जिसमें देवताओं के राजा इंद्र और असुर वृतासुर (वृत्त) के बीच अग्नि और जल पर अधिपत्य हासिल करने के लिए युद्ध की घटना का वर्णन मिलता है। अग्नि पर इंद्र तथा जल पर वृतासुर का नियंत्रण था। परन्तु वृतासुर अग्नि पर भी अपना अधिकार और नियंत्रण करना चाहता था। जिस कारण दोनों के बीच में युद्ध होता है। इसी युद्ध का प्रदर्शन इस बूढी दिवाली मेले में किया जाता है। 

परशुराम जी द्वारा स्थापित प्रसिद्ध दशनामी जूना अखाडा में सर्वप्रथम स्थानीय ब्राह्मणों द्वारा पूरी पवित्रता और वैदिक रीती अनुसार अग्नि की स्थापना की जाती है। गढ़िये राजा इंद्र की सेना की भूमिका निभाते हैं, और वृतासुर के अग्नि पर नियंत्रण के प्रयासों को विफल करते है। दानवे वृतासुर की सेना की भूमिका निभाते हैं और अग्नि पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए इंद्र की सेना पर आक्रमण कर देते हैं। इस युद्ध के परिणाम स्वरूप वृतासुर हार जाता है और एक गुफा में छुप जाता है। सुबह ब्रह्मण और क्षत्रिय धोखे से बहला फुसला कर वृतासुर को उस गुफा से बाहर निकालते हैं और वहीँ उसका अंत कर देते हैं। 

इसमे दो बांड (एक विशेष प्रकार की घास से बनायी हुई सर्प के आकार की रस्सी) निकाले जाते हैं जो एक नर और एक नारी के रूप में होते हैं। जिसमे एक तो वृतासुर का और दूसरा दानवों की माता दनु का होता है। जिनको स्थानीय लोगों द्वारा पारम्परिक वाद्य यंत्रों के साथ दशनामी अखाड़े में ले जाया जाता है और फरसे से काट दिया जाता है और सभी लोग ख़ुशी से झूम उठते हैं और दिन के समय नाटी लगाते हैं। 

कविरी (पकीरी) ब्राह्मणों या परिवार द्वारा बूढी दिवाली का निर्वहन 

बूढ़ी दिवाली का त्योहार दीपावली के पूरे एक महीने के बाद अमावस्या की रात को मनाया जाता है। इसमें कविरी (पकीरी) परिवार द्वारा इसका निर्वाह या आयोजन किया जाता है। सर्व प्रथम इसमें मंदिर माता अंबिका मंदिर की  कमेटी व उसके सदस्य कविरी परिवार को तीन – चार दिन पहले सूचित करते हैं कि बूढ़ी दीवाली का आयोजन है तो उस दिन इस परिवार का मुखिया, जो मंदिर द्वारा चिन्हित होता है, वह उपवास रखते हैं।

जिस दिन बूढ़ी दिवाली होती है, उस दिन मंदिर से कुछ सदस्य उनके घर जाते हैं। वहां से उनको निमंत्रित करके अपने साथ दशनामी जूना अखाड़ा जो काफी प्रसिद्ध है और जिस के प्रति संपूर्ण क्षेत्र और ग्रामवासियों की आस्था है वहां पर उस स्थान के लिए चलना शुरू कर देते हैं और जैसे ही वह परिवार वहां आता है, उससे पहले सात बार भिन्न भिन्न ध्वनियों द्वारा उनका वाद्य यंत्रों के साथ स्वागत किया जाता है। उसके बाद वह दशनामी जूना अखाड़े में प्रवेश कर देते हैं।

जब दशनामी जूना अखाड़े में वह प्रवेश करते हैं, तो वहां पर बहुत बड़े बड़े पांच लट्ठों को जला कर अग्निपुंज स्थापित करके पूजा करता है। जिसमे कविरी परिवार के सदस्य द्वारा बजरंगबली श्री हनुमान जी से अग्निबाण, प्रभु श्री राम जी के अंश्ज नातली नाग से शारीरिक व आध्यात्मिक बल के लिए प्रार्थना की जाती है। इन शक्तियों के आधार पर सर्वप्रथम उसके द्वारा राजा बलि के निमित पिंड डाला जाता है और राजा बलि की प्रशंसा में कविता गायी जाती है। 

रात की  बूढी दिवाली को 11 काव्य खंडो में विभाजित किया गया है। जिनको कविरी परिवार के सदस्य द्वारा पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ गाया जाता है। जिसे स्थानीय भाषा में कंडी कहा जाता है। इनका गायन और निर्वहन पूरी रात्री भर चलता है। जिनका वर्णन कुछ इस प्रकार से है:- 

  1. पहली कंडी (काव्य खंड) के गायन द्वारा कविरी परिवार के सदस्य द्वारा स्थानीय देवी-देवताओं को मेले में आने का निमंत्रण लगाया जाता है। जब यह गायन हो रहा होता है, तो स्थानीय लोग अग्निपुंज के चारों ओर नृत्य करते हैं। 
  2. दूसरी कंडी में रामायण काल में हुए माता सीता के स्वयम्वर की कहानी को गाया जाता है। 
  3. तीसरी कंडी में भगवान श्री राम जी के वनवास की कथा को गाया जाता है, जिसका श्रवण कर सभी भाव विभोर हो उठते हैं। 
  4. चौथी कंडी में लंका दहन के कुछ पद गाये जाते हैं और गढ़ियों के द्वारा अग्निपुंज के चारों ओर नृत्य किया जाता है। 
  5. पांचवी कंडी महाभारत से उद्धृत है जिसमे कीचक के वध का विवरण आता है। 
  6. छठी कंडी में दक्खन गोगर (अर्थात गाय को चुराने से सम्बंधित झगड़ा) का विवरण गाया जाता है। 
  7. सातवीं कंडी में पांडवों और कौरवों के संघर्ष को गाया जाता है। 
  8. आठवीं कंडी में जयद्रथ वध की कथा का गायन किया जाता है। इस कंडी के गायन के समय दानवे मशाल लेकर पूरे नगर की परिक्रमा करते हैं, और रात खुलने से पूर्व अखाड़े को लौटते हैं। 
  9. नवीं कंडी में कर्ण के साथ हुए युद्ध और कर्ण के मारे जाने का उल्लेख आता है। इन सभी काव्य खण्डों में जहाँ भी वीर रस का उल्लेख आता है, वहां पर कविरी हाथ खड़ा कर हिलाता है।
  10. दसवीं कंडी में भगवान श्री कृष्ण जी के पांडवों से विदाई लेने की कथा का  उल्लेख मिलता है। 
  11. ग्यारहवीं कंडी में दियाउड़ी का विसर्जन किया जाता है।    

 

दूसरी कथा और ऐतिहासिक व्याख्या के अनुसार

इस घटना को सतयुग के चतुर्थ चरण में हुई एक घटना के साथ जोड़कर देखा जाता है, कहा जाता है कि सतयुग के चौथे चरण में बलिराज नामक एक दैत्य राजा हुआ था। जिसने 99 यज्ञ पूर्ण कर लिए थे और 100वा यज्ञ कर रहा था। यदि वह  इस यज्ञ को पूर्ण कर लेता तो उसे कई शक्तियां प्राप्त हो जाती। देवताओं ने इस भय के कारण भगवान विष्णु से विनती की कि आप उसे इस यज्ञ करने से रोकें। उस समय भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर ढाई पग मांगने के बहाने छलने के लिए राजा बलि के पास आए थे। इस दृश्य को देखने वहां पर अन्य देवता गण भी उपस्थित रहे।

परंतु असुरों के गुरु शुक्राचार्य जी ने उस रहस्य को जान लिया था और राजा बलि को वामन देवता के द्वारा मांगे जाने वाले ढाई पग जमीन देने से रोकने की कोशिश की। परंतु राजा बलि पहले से ही संकल्प ले चुका था। तब भगवान वामन ने पहले पग में पृथ्वी और दूसरे पग में आकाश को नाप दिया था और अगले पग के लिए जगह न मिलने पर राजा बलि ने उन्हें अपने सर पर पैर रखने के लिए कहा। तो जैसे ही भगवान वामन ने राजा बलि के सर पर पर रखा तो राजा बलि पाताल की ओर धस गया। 

यह घटना मार्ग शीर्ष अमावस्या को घटी थी और जो यज्ञ राजा बलि कर रहा था वह पूर्ण आहुति के बिना अपूर्ण रहा। जिस वजह से एक विशाल दिव्य तेज के रूप में यज्ञ की मेध शक्ति उस यज्ञ कुंड से बाहर निकली और इधर उधर अपने मख्कर्ता की खोज में भटकने लगी। जैसे ही उस मेध शक्ति को भगवान वामन द्वारा राजा बलि को पाताल भेजने की घटना का पता चला तो वह मेधशक्ति वापस लौटने लगी। जिस पर देवता और असुर दोनों ही उस मेधशक्ति को प्राप्त करना चाहते थे और उनके बीच संग्राम शुरू हो गया। जिसमें असुर पराजित हुए। उस समय से दैत्य, बलिराज की इस स्मृति को सर्वत्र मानने लगे।

भगवान परशुराम जी ने निरमंड नामक स्थान पर यज्ञ आदि व्यवस्था चला दी थी। उसके बहुत समय के पश्चात पाताल लोक से मृत्यु लोक को एक दैत्य दंपति भ्रमण करता हुआ इस निरमंड नामक स्थान पर पहुंचा और फिर यहां हो रहे भुंडा महायज्ञ को देखने के लिए उन्होंने मनुष्य का रूप धारण कर लिया और पूरा भुंडा महायज्ञ मनुष्य के रूप में देखा। इसके बाद वे दोनों दैत्य दंपति सर्प के रूप में निरमंड में परशुराम गुफा में रहने लगे। इसी बीच में कई अन्य दैत्य भी उनके सहयोगी बन गए और वहीँ पर रहने लगे। 

ये दैत्य भी मार्ग शीर्ष अमावस्या को अपने स्वामी बलिराज तथा उनके यज्ञ कुंड की पूजा करने लगे और कभी-कभी जब भी उन्हें अवसर प्राप्त होता, तो वह क्षेत्रीय लोगों को तंग करते और उपद्रव मचाते और कई बार ये दैत्य मनुष्यों को भी मार देते थे और कई यज्ञों के आयोजन में विघ्न डालने लग जाते थे। जिस वजह से उन दैत्यों को मारने की आवश्यकता पैदा हो गई थी। परंतु यह कार्य कोई मनुष्य नहीं कर सकता था, क्योंकि वह दैत्य बहुत ज्यादा शक्तिशाली थे। इसीलिए भगवान परशुराम जी से स्थानीय लोगों ने याचना की और भगवान परशुराम जी ने स्वप्न में उन्हें उन दैत्यों को मारने का आदेश और सफलता का आशीष दिया।

इसी में एक दंतकथा के अनुसार यह भी बताया गया था कि कोट का प्रशासक ठाकुर जो बाद में निरमंड जिसे नई नगरी के नाम से भी जाना जाता था, वहीं पर निवास करने लगा था। जब उस ठाकुर को यह पता चला कि दैत्य ने यहां पर उपद्रव मचा कर रखा है और यज्ञ आदि में विघ्न डालता है, तो वह उन दैत्यों को मारने के लिए फरसा लेकर निकल पड़ा। परंतु वे दानव उसकी आहट पाकर छुप गए। 

ठाकुर को वहीँ कविरी परिवार का एक पुरोहित बलिराज व उसके कुंड की पूजा करता हुआ मिला और वह ठाकुर इस पुरोहित को दैत्य समझकर उस पर झपट पड़ा। परंतु वह पुरोहित भी युद्ध कला में निपुण था। उसके पास भी एक फरसा था। दोनों में सुबह तक युद्ध होता रहा और सुबह होने पर जब उन्होंने एक दूसरे को देखा, तो ठाकुर को अपनी भूल का एहसास हो चुका था कि उसने अनजाने में पुरोहित पर आक्रमण कर दिया था। जिस वजह से उसने पुरोहित के पैर पड़कर क्षमा मांगी। 

इसके उपरांत उन्ही पुरोहित के परामर्श के अनुसार एक षड्यंत्र रचा गया।  जिसमें उन्होंने उन असुरों को मारने की योजना बनाई और उस योजना के अनुसार कुछ लोगों ने उन असुरों को बहला फुसला कर अपने साथ मिलकर नृत्य करने के लिए आमंत्रित किया और जब वे नाटी में नाच रहे थे,  तो असुरों को खतरा होने की आशंका हुई और फिर वापस जाकर उसी गुफा में अंतर निहित हो गए। 

और फिर से  कुछ लोग उस गुफा के पास गए और वहां पर जाकर गंधर्व वाद्य बजाने लगे और राजा बलिराज की दानशूरता की प्रशंसा करते हुए उन असुरों से भिक्षा मांगने लगे। जिससे वे सब असुर मंत्र मुग्ध हो गए व मांगी वस्तु देने के लिए तैयार हो गए।  अंत में सभी ने उनसे साथ में नाचने का वचन मांगा, जिसके फलस्वरूप दोनों अलग-अलग बाहण अर्थात खेतों में ब्राह्मणों के साथ नाचने लगे तो दो क्षत्रियों ने उन्हें तलवार से काट दिया और उनके सर इसी दशनामी अखाड़े में रखे गये।

इसी के अनुसार यहां पर इस पूरे घटनाक्रम का निर्वहन यहां के स्थानीय लोग रात की दिवाली (दियाउड़ी) में प्रदर्शन करते हैं और उनअसुरों के मारे जाने की खुशी में नाटी लगाते हैं।

इस पूरी बूढी दिवाली मेले में कविरी (पकीरी) परिवार का सदस्य मुख्य प्रतिनिधि व मुख्य पुरोहित की भूमिका निभाता है और इसी परिवार का सदस्य शुरुआत से अंत तक इस मेले का संचालन करता है। इसके बाद ये मेला 3 दिन तक चलता है। जिसमे रात्रि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है और स्थानीय स्कूलों के बच्चों और स्थानीय कलाकारों ,अतिथि कलाकारों के द्वारा प्रस्तुति दी जाती है। इसके अलावा विभिन महिला मंडलों के लिए कई प्रकार की प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया जाता है। मेला मैदान में विभिन्न व्यापारी अपनी अपनी दुकाने लगाते है, जिन से इस मेले में आने वाले सभी लोग खरीददारी करते हैं। ये मेला बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।  

जुबानी : श्री नीरज शर्मा जी (कविरी) परिवार के सदस्य

 

Leave a Comment

error: Legal action will be taken against content copying.