देवता जल नाग सरपारा के 6 मंदिर, स्वरूप व् पूजन पद्धति (Six Temples of Jal Sarpara)
वैसे तो पूरे भारतवर्ष के मंदिर अपनी निर्माण शैली के लिए पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के मंदिर भी अपनी निर्माण शैली के लिए प्रसिद्ध हैं इस लेख में आज हम बुशेहर घाटी में स्थित सरपारा के जल नाग मंदिर व् देवता के स्वरूप और देवता की पूजन पद्धति के बारे में पढेंगे
देवता जल नाग मन्दिर परिसर के मन्दिर बुशहर घाटी के अन्य मन्दिरों की भान्ति ही पहाड़ी शैली में निर्मित हैं। मन्दिर के दरवाजों व छतों पर कुरेदी गई कढ़ाई की गयी है जो प्राचीन काष्ठ कला का परिचय करवाती है। देवता जल के सरपारा मन्दिर परिसर में कुल मिलाकर छोटे बड़े छः मन्दिर हैं जिनका इस मंदिर में एक विशेष महत्व माना जाता है । प्रत्येक मन्दिर का सम्बन्ध देवता जल, लमदूदीं व नौ नागों से माना जाता है।
देवता की उत्पति से सम्बंधित मंदिर : Six Temples of Jal Sarpara
गांव से मात्र 300 मीटर की दूरी पर 350 मीटर लम्बा व 200 मीटर चौड़ा एक विस्तृत मैदान है जो दलदल से परिपूर्ण है। मैदान के एक किनारे पर पूर्व दिशा की ओर एक मंजिला पहाडी शैली में निर्मित लकड़ी व पत्थरों से निर्मित एक मन्दिर है। यहाँ पर ही जल नाग देवता की उत्पति हुई माना जाता है
मन्दिर को इस स्थान पर बनाने का कारण यह माना जाता है कि सरपारा गांव के ग्रामीणों ने इस दलदली मैदान में जिसे स्थानीय भाषा में ‘सौर” कहा जाता है , में एक मन्दिर बनाने का निश्चय किया। परन्तु स्थानीय लोग ये नही समझ पा रहे थे की मंदिर का निर्माण किस स्थान पर किया जाए, इसके लिए जन समुदाय की यही धारणा थी कि देवता जल किसी चमत्कार के माध्यम से मन्दिर का निर्माण किस जगह पर किया जाए, इस बात का संकेत अवश्य देंगे।
इसके लिए सभी ग्रामीण एक समूह में एकत्रित होकर उस सौर की ओर पालकी लेकर चल पड़े। सौर में देवता ने उस स्थान पर सिर झुकाना शुरू किया जहां से जल निकल रहा था, उस जगह पर देवता रुक गया। सौर के एक किनारे से एक कुई से निकलने वाला यह जल, नाग की चाल से चलता हुआ गांव सरपारा की ओर बहता है।
देवता जिस स्थान पर खड़ा था, उसी स्थान से एक नाग भी निकला था जो कीचड़ या दलदल को चीरकर आगे बढ़ा तथा इस कुई में लुप्त हो गया। ग्रामीण समुदाय ने इसी पवित्र स्थान में एक मंजिला पहाड़ी शैली में गारे, पत्थर व लकड़ी से मन्दिर का निर्माण करवाया।
देवता का दूसरा मंदिर
देवता साहिब जल नाग का दूसरा वह मन्दिर है जहां पर देवता जल की पालकी को एक कक्ष में रखा जाता है। कक्ष के साथ ही एक हालनुमा कमरा है जहां पर देवता से सम्बन्धित कई धार्मिक कार्यों की रसोई बनती है। कमरे की निचली मंजिल का प्रयोग उस समय होता है जब वर्ष में एक बार दुर्गा पूजा की जाती है तथा दुर्गा सप्तशती पाठ भी करवाए जाते हैं
देवता का तीसरा मंदिर “महासू की कोठी”
देवता साहिब का तीसरा मन्दिर ‘महासू की कोठी’ के नाम से जाना जाता है जो कि देव निवास वाले स्थान से मात्र 60 मीटर की दूरी पर पीछे की ओर तीन मंजिला पहाड़ी शैली का बेजोड़ नमूना है। जनश्रुति के अनुसार यह मंदिर 500 वर्ष प्राचीन है। सबसे ऊपर वाली मंजिल में देवता महासू की कोठरी है। ऊपरी छत के चारों ओर लकड़ी की झालर, जो मात्र छ: इंच छोटे-छोटे टुकड़ों की है, जो मन्दिर की सुन्दरता को चार चाँद लगाती है
देवता का चौथा मंदिर “देवरा”
देवता साहिब का चौथा मन्दिर देवता महासू की कोठी के दक्षिण दिशा की ओर बनाया गया है। इसे स्थानीय भाषा में ‘देवरा’ कहते हैं। यहां पर मौसम खराब होने के समय देवता के रथ को नचाया या उठाया जाता है। देवरे में देवदार के चार फुट ब्यास वाले खम्भे लगे हुए हैं। इन चारों स्तम्भों का भी अपना विशेष महत्व है। प्रत्येक स्तम्भ में एक-एक देवता की स्थापना की गई है। जिनके नाम हैं- देवता चोरू, बड़ा देवता, नया देवता तथा महावीर ।
देवता का पांचवा मंदिर “देवता की ठौढ़”
देवता साहिब का पांचवा मन्दिर ‘देवता की ठौड़’ के नाम से जाना जाता है। यह मन्दिर वास्तव में माँ दुर्गा का वास स्थल है। यहां पर प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की संक्रांति को यज्ञ होता है तथा बलि भी चढ़ाई जाती है।
देवता जल नाग कोई भी कार्य मां दुर्गा की अनुमति के बिना नहीं करता है। हर कार्य के लिए मां दुर्गा की अनुमति चाहता है। ठौड़ के साथ ही एक खुला आंगन है। वहांपर देवता जल की पालकी को निकाल कर नचाया जाता है, ताकि देवता को देवी की अनुमति के लिए कहीं दूर न जाना पड़े।
देवता का छठा मंदिर “धारला”
देवता साहिब का छठा मन्दिर ग्राम सरपारा से मात्र चार कि.मी. की दूरी पर ‘धारला’ गांव में है। जो आकार में छोटा है। कुछ लोगों के मतानुसार यह मन्दिर देवता जल का सबसे पुराना व मूल मन्दिर है।
देवता जल नाग का स्वरूप
देवता जल के कुल मिलाकर संख्या में छः मुहरे हैं। रथ के सबसे ऊपर वाले नुकीले भाग की ओर देवता जल की मूर्ति है जो कि अष्टधातु से निर्मित बताई जाती है यह मूहरे के रूप में है। दूसरा मूहरा देवता आग का है जो देवता जल का नवां पुत्र है। तीसरा मूहरा सबसे छोटा है जिसे देवी का मूहरा बताया जाता है। चौथा व पांचवा मूहरा देवता जल के रथ में सजावट के लिए लगाया गया है। छठा मूहरा ‘देवता गरशाई’ का है। ये तीनों मूहरे चांदी के हैं।
पूजन की पद्धति
देवता साहिब की पूजन पद्धति में समयानुसार परिवर्तन होते रहे हैं। आरम्भ में जब देवता जल की उत्पत्ति हुई, उस समय सरपारा ग्राम को एक व्यक्ति पैदल चलकर 150 कि.मी. का सफर तय कर गांव जाओ (जिला कुल्लू) से ग्राम सरपारा देवता जल की पूजा अर्चना करने आता था। वह इतना लम्बा सफर 5425 मीटर ऊंचाई वाली श्रीखण्ड महादेव की चोटी को तय करके करता था। जनश्रुतियों के अनुसार पण्डित इतना लम्बा सफर दैविक शक्ति द्वारा प्राप्त गरुड़ पर आसीन होकर करता था।
लेकिन आधुनिक समय में देवता साहिब अपने क्षेत्र के किन्हीं दो व्यक्तियों को चुनते हैं। यह दोनों पुजारी अलग-अलग खानदानों से सम्बन्ध रखते हैं ताकि किसी एक पुजारी के घर सुतक-पातक होने की स्थिति पर दूसरा पुजारी देवता की पूजा अर्चना कर सके जिससे देवता साहिब की पूजा में कोई भी व्यवधान उत्पन्न न हो ।
पुजारी प्रातः काल 10 बजे से पूर्व देवता जल की पूजा हर रोज करने आता है तथा मन्दिर से एक विशेष प्रकार का बर्तन जिस ‘जारी’ कहते हैं, को लेकर पानी के स्रोत पर जाकर स्नान कर ‘जारी’ में पानी लाता है तथा इस पवित्र जल के छींटे मूहरों पर फैंके जाते हैं। तत्पश्चात् मुहरों को लाल रंग के तौलिया नुमा साफ वस्त्र से पोंछा जाता है। फिर देवता की जड़ी धूप द्वारा सुगन्धित व पवित्र वातावरण में मन्त्रोचारण द्वारा पूजा अर्चना की जाती है।
नोट: Folktales by Himsuchna पर हम पूरी जिम्मेदारी के साथ लिखते हैं. एकत्रित जानकारी,विभिन्न जनश्रुति से तथा इतिहास के लेखों से जुटाए गई है. यदि आपको इसमें कोई त्रुटि लगे और आप उसको सुधारने में हमारी सहायता करना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. अनजाने में हमारे द्वारा हुई त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं हमसे जुड़ने के लिए आप Contact Us पेज पर जाएं